भाई मैं तो कवि हूं नहीं, परन्तु कविता पढ़ना मुझे बहुत अच्छा लगता है। इसलिए आज बैठे बैठे इधर उधर से हिन्दी की किताब पढ़ रहा था तभी मेरी नजर इस कविता पर पड़ी इस के कवि का नाम तो नहीं दिया हुआ था परन्तु मुझे ये कविता बहुत ही अच्छी लगी मैने तुरन्त आपके साथ शेयर करने का फैसला कर लिया।जनसंख्या वृद्धि पर कवि द्वारा रचित ये कविता आज की ज्वलन्त समस्या जनसंख्या वृद्धि पर एक सवाल खड़ा कर रही है। इस कविता के लिए इस कविता के कवि को लाख लाख बधाईयां जिन्होंने इस समस्या पर अपनी लेखनी चलाई ।
आपसे निवेदन हैं कि कवि की बात पर गोर फ़रमा कर इस समस्या से अपने देश को बचाने का प्रयास जरूर करें।
!!जय भारत !! !!जय हिन्दुस्तान!!
दिन-दिन बढ़ती आबादी ने, पैदा कर दी विपदाएं।
बटते- बटते घटी घरों में सभी तरह की सुविधाएं।
दूध- भात की बातें बीती, रोटी दाल न खाने को ।
तन ढ्कने को वस्त्र न पूरे, चादर नहीं बिछानें को।
बटते- बटते घटी घरों में सभी तरह की सुविधाएं।
दूध- भात की बातें बीती, रोटी दाल न खाने को ।
तन ढ्कने को वस्त्र न पूरे, चादर नहीं बिछानें को।
एक जून का भी भोजन,जन जुआ रहें कठिनाई से।
बेटों को मां, मां को बेटे, भार बने महँगाई से।
पाटी - पोथी बिना पढ़ाई , हो ना पा रही बच्चों की।
पैरों तले जमीन खिसकती,देखी अच्छे - अच्छो की ।
बेटों को मां, मां को बेटे, भार बने महँगाई से।
पाटी - पोथी बिना पढ़ाई , हो ना पा रही बच्चों की।
पैरों तले जमीन खिसकती,देखी अच्छे - अच्छो की ।
हाट - बाट में भीड़-भाड़ है, धका -पेल बाजारों में।
लोग जरूरी चीजें लेने, देखों खड़े कतारों में।
हुए चौक-चौपाटी चौपट,खेलें ऐसी ठौर कहां।
उग आए हैं कंकरीट वन,कच्ची बस्ती जहां तहां ।
लोग जरूरी चीजें लेने, देखों खड़े कतारों में।
हुए चौक-चौपाटी चौपट,खेलें ऐसी ठौर कहां।
उग आए हैं कंकरीट वन,कच्ची बस्ती जहां तहां ।
वस्तु अभाव भाव बढ़ जाते, फैली तंगी कंगाली।
कई लोग बेकार, हाथ में काम नहीं ,जेबें खाली।
सोच विचार मनन करके हम,यदि बदलाव न लाये तो।
विफल विकास सभी होंगे तब, हो न सकेगा चाहें जो।
कई लोग बेकार, हाथ में काम नहीं ,जेबें खाली।
सोच विचार मनन करके हम,यदि बदलाव न लाये तो।
विफल विकास सभी होंगे तब, हो न सकेगा चाहें जो।
बाजू में बल नहीं असीमित,सीमित साधन धरती धन।
जनसंख्या का बोझ बढ़ाकर,नरक बनाएं क्यों जीवन ?
जितनी खाद जमीन और जल,उसे देखकर पौधलगाएं।
जितनी लम्बी सौर सुलभ हो उतने ही तो पग फैलाएं।
जनसंख्या का बोझ बढ़ाकर,नरक बनाएं क्यों जीवन ?
जितनी खाद जमीन और जल,उसे देखकर पौधलगाएं।
जितनी लम्बी सौर सुलभ हो उतने ही तो पग फैलाएं।
भूख, गरीबी,बीमारी से, होने दे हम क्यों मौतें ?
जान बूझ कर हम विनाश को, अपने हाथों क्यों न्यौतें।
जितना पाल सकें उतना ही ,निज कुटुंब को फैलाएं ।
अपने घर को चमन बनाएं,सभी ओर सुख बरसाएं।
जान बूझ कर हम विनाश को, अपने हाथों क्यों न्यौतें।
जितना पाल सकें उतना ही ,निज कुटुंब को फैलाएं ।
अपने घर को चमन बनाएं,सभी ओर सुख बरसाएं।
ये शेखावाटी की वहीं कहावत हैं कि
‘‘ जितणा आपणी गुदड़ी म तागा हैं , उतणा ही पग पसारना चाये’’
तो भाया सगळा मिलर अब इं समस्या न रोको आपके पढ़ने लायक यहां भी है।
सत्य बचन !
ReplyDeleteवर्तमान का सच लिखा है
ReplyDelete- विजय तिवारी 'किसलय'
यह एक विचारणीय पोस्ट बन गयी है|
ReplyDeleteअच्छी पोस्ट,अगर जनसंख्या इसी तरहे बढती रही तो सारे प्राक्रतिक संसाधन खत्म हो जायेगा|
ReplyDeleteबढ़िया है |
ReplyDeleteयह कविता मुझे चौथी पांचवी कक्षा (2007-08) से याद है, मुझे जब भी मौका मिलता है किसी फंक्शन में,सेमिनार स्कूल कॉलेज में तो मैं इस जवलंत समस्या पर जागरूकता फैलाने के लिए इस कविता को जरूर बोलता हूं। मुझे इस कविता के कवि का नाम याद नहीं है लेकिन जिस भी महान कवि ने इसे लिखा है उनका सादर धन्यवाद 🙏
ReplyDeleteRight
Deleteबहुत ही अद्भुत
ReplyDeleteअद्भुत कविता लेखन
ReplyDeleteमैथिलीशरण गुप्त की कविता ह ये
ReplyDeleteadıyaman
ReplyDeletesakarya
yalova
tekirdağ
amasya
LFKB