इसलिए मैने बगड़ की स्कूलों में जा जा कर जांच पड़ताल शुरू कर दी किसी स्कूल में व्यवस्था अच्छी नहीं मिली कहीं स्टाफ अच्छा नहीं मिला कहीं स्कूल बस की व्यवस्था नहीं मिली अन्त में बगड़ में पिछले 4-5 वर्षो से नई खुली स्कूल ज्योति विद्यापीठ बाई पास, बगड़ में जाना पड़ा वहां पर कुल मिलाकर रंग ढ़ग अच्छा लगा तो लक्ष्य का भी एडमीशन वहीं करवाना पड़ा
एक तो उस स्कूल की बस हमारे निवास स्थान तक पहले की सालों से ही आ रही थी इसलिए मुझे वहीं उपयुक्त लगा क्योकि छोटे बच्चे के लिए सबसे पहली जरूरत साधन यानि उसे घर से लाना और स्कूल से घर तक छोड़े की समस्या सबसे ज्यादा रहती है। इसलिए उस स्कूल का साधन यानी बस पहले से ही जा रही थी अतः मैने अन्ततः लक्ष्य का एडमीशन 6 जुलाई को बगड़ नगर की ज्योति विद्यापीठ स्कूल जो बाई पास रोड़ के पास स्थित है में करवा दिया ।
एक दो दिन तो लक्ष्य ने रोना धोना ही नहीं छोड़ा ‘‘ कहा पापा आप भी मेरे साथ स्कूल चलों आप यही बैठे रहो मैं यहां नहीं रहुगां बगेर बगेर बहाने बच्चा था करता भी क्या घर को छोड़ने को मन भी किसका करता हैं उसको रोता देख मुझे मेरा बचपन याद आ गया मैं भी तो ऐसे ही रोते राते स्कूल जाया करता था वो जमाना अलग था हाथ में पट्टी और जेब में सिर्फ बरता होता था
आजकल तो सबसे पहले बस्ता लाद दिया जाता है बच्चे की पीठ पर और उसमें वो 8-10 कोर्स की किताबे फिर लक्ष्य को समझाया और टोफी बिस्किट बगैरह का लालच दिया और दो चार दिन उसे अकेली ही स्कूल में पुरे टाईम रहने दिया स्कूल से पता चला वो पुरे दिन रोता रहता है और पापा के पास जाने की जिद्द करता रहता हैं फिर एक दो दिन में सब सामान्य होता नजर आया मुझे खुशी हुई आखिर लक्ष्य का मन स्कूल में लगने लग गया मैने सोचा चलो पप्पू पास हो गया
और अब उसका स्कूल जाना बिलकुल सामान्य हो गया और वो आये दिन नई नई चिजो की फरमाइश करने लगा वो भी स्कूल से संबंधी चिजो की जैसे मुझे पेंसिल ला दो मुझे रबर ला दो मुझे कापी ला दो किताब दिला दो बस्ता ला दो मैने उसकी जरूरत के मुताबिक उसे सब साधन लाकर दे दिया आज वो अपना बैग पिछे लटका कर जब चला जब पुरा विद्यार्थी लग रहा था मुझसे रहा नहीं गया और मैने उसे अपने कैमरे में कैद कर लिया
वह अपने पिछे स्कूल बैग लटकाए बहुत ही अच्छा लग रहा है। और मुझे मेरा बचपन याद दिला रहा है। और अब तो उसे स्कूल की तरफ से होम वर्क (गृह कार्य) भी दिया जाने लगा हैं साम को मेरे घर जाते ही वह कहता है पापा मैने आंक मडावो अतार्थ मेरा गृह कार्य करवाइये और मैं उसका हाथ पकड़कर उसका कार्य पुरा करवाता हू। अभी वो कुछ ज्यादा तो लिखना नहीं सिखा है पर अभी उसे स्कूल जाते हुए दिन भी तो 7 ही हुए है। धीरे धीरे सिख जायेगा।
घर आकर जब वो अपनी नोट बुक, कच्ची पेंसिल, सोपनर, रबर लेकर स्कूल का कार्य करने बैठता तो बहुत ही अच्छा लगता हैं एसा लगता है कि अपना पुरा ध्यान गृह कार्य करने में लगा देता है अभी स्कूल की तरफ से उसे ए सिखाया जा रहा है। और हा एक बात उसमें जरूर देखने को मिली जब भी उससे कोई गल्ती हो जाती है तब अपने कान पकड़कर कहता है सोरी पा यानि अक्षर ज्ञान के साथ साथ मैनर्स भी सिख रहा है।
हां मैं आपको ये तो बताना भुल ही गया इस वर्ष नर्सरी कक्षा में उसका एडमीशन हुआ है उसके लिए उसकी फिस और बस किराया तथा अन्य चुट पुट मिलाकर खर्चा लगभग 18 20 हजार पहुच जायेगा। एक हमारा जमाना था
और एक आज का जमाना... बच्चे को स्कूल में बैठना सिखाने के लिए 20 हजार रूपये खर्च करने पड़ रहें हैं पर करे भी तो क्या जमाना आधुनिकता का है।
हमारे जमाने में सरकारी स्कूलों में मात्र 51 रूपये फिस में पुरी 8 वीं तक की पढ़ाई पुरी कर ली थी और आज ....
हाम वर्क के बाद जब वो सोता है तब कहता है मुझे सुबह जगान मै। स्कूल में लेट हो जाउगां गाडी आ जायेगी और सुबह एक आवाज लगाने से झट से उठ खड़ा होता है और नहा धोकर चल पड़ता है अपनी स्कूल बस की तरफ...
और दोपहर स्कूल छुटने के बाद घर जाना और आपना हाम वर्क करना ये ही उसकी दिनचर्या का एक हिस्सा बन गया है।
मुझे उसकी ये दिनचर्या बहुत ही अच्छी लगी इसलिए मैने उसको अपने कैमरे में कैद कर यादास्त के लिए और आपके साथ शैयर करने के लिए रख लिया
उसकी इस दिनचार्या को देखकर मुझे 8.10 साल पहले राष्ट्रीय साक्षरता मिशन के तहत एक बार गावं में नुक्कड़ नाटक में बगड़ के प्रसिद्ध हिन्दी साहित्यकार भागीरथ सिंह भाग्य द्वारा गाये गये गीत की वो दो पंक्तिया धुधली सी याद आ गई
‘‘ लेल्यो पट्टी बरतो कि पढ़णों जरूर है !
बिन पढ़या सब बिन पुछ्या का लंगूर है।!!
लेल्यो पट्टी बरतो कि पढ़णों जरूर है...."

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