हमारी आंचलिक संस्कृति कहें चाहे इसे भारतीय संस्कृति कहें इसमें बहुत से शब्द या चीजे इस समाज से लुप्त नष्ट होते जा रहें है,ऐसा लगता है आने वाली पिढ़ी इन चीजों के नाम सुनकर ताज्जुब करेगी की ये भी कोई वस्तुए, नाम, चीजे हुआ करती थी ,आप सभी से अनुरोध है कि इस नष्ट होती संस्कृति को बचायें ये हमारी धरोहर है हमारी सभ्यता है। ये जो नीचे शब्द एक कविता के माध्यम से दिये जा रहें है वो शब्द आज से 2 या 3 दशक पहले हमारें सामाजिक अंचल में ही प्रयोग में लाये जाते रहें हैं कुछ एक तो आजकल भी प्रचलन में पर अधिकांशतः लुप्त हो गये है घर के किसी बुढे बड़े से ही सुनने को मिलते हैं ,ये पाश्चात्य संस्कृति का प्रभाव ही तो है जो आज हम अपनी संस्कृति को भूलते जा रहें हैं हो सकता है ये नाम आप सबने कहीं न कहीं तो जरूर सुने होंगें लेकिन अब ये बहुत कम देखते सुनने को मिलते है। कृपया इस नष्ट होती संस्कृति को बचायें ये हर भारतीय का दायित्व है और इस आंचलिक राजस्थानी कविता का आनन्द उठायें
लुगाईयां का घाघरा ,खिचड़ी का बाजरा
सिरसम का साग ,सर पे पाग
आंगण में ऊखळ, कुणे में मूसळ,
ढूंढते रह जाओगें
घरां में लस्सी, लत्ते टांगण की रस्सी,
आग चूल्हे की ,संटी दुल्हे की,
कोरड़ा होळी का ,नाळ मोळी का,
पहलवांना का लंगोट ,हनुमान जी का रोट
कोरड़ा होळी का ,नाळ मोळी का,
पहलवांना का लंगोट ,हनुमान जी का रोट
ढूंढते रह जाओगें
घूँघट आळी लुगाई ,गावां मै दाई,
लालटेण का चानणा ,बनछटीयां का बालणा,
बधाई की भेल्ली ,गांव में हेल्ली,
घरां मै बुढ्डे, बैठकां में मुढ्डे
ढूंढते रह जाओगें
बास्सी रोटी अर अचार गळिया में घुमते लुहार,
खांड का कसार,टींट का आचार,
कांसी की थाळी,डांगरा के पाळी,
कांसी की थाळी,डांगरा के पाळी,
बीजणा नौ डांडी का, दूध दही घी हाँडी का,
सरोई में दरांत, बाळका की दवात,
ढूंढते रह जाओगें
बटेऊआं की शान ,बहुआ की आन
पील गर्मियां मैं ,गूंद सर्दिया मै
पील गर्मियां मैं ,गूंद सर्दिया मै
ताऊ का हुक्का,ब्याह का रुक्का
बोरला नानी का, गंडासा सान्नी का
कातक का नहाण, मूंज के बाण
बोरला नानी का, गंडासा सान्नी का
कातक का नहाण, मूंज के बाण
ढूंढते रह जाओगें
चूळ आळी जोड़ी (किवाड़), गिनती में कोड़ी
कोथळी साम्मण की ,रौनक दाम्मण की
कोथळी साम्मण की ,रौनक दाम्मण की
पाटड़े पै नहाणा, पातळ पै खाणां
छात्यां मै खड़ंजे अर कडी,गुग्गा पीर की छड़ी,
लूणी घी की डळी,ग्वार की फळी
पाणी भरे डेग,बाहण बेटियां के नेग
पाणी भरे डेग,बाहण बेटियां के नेग
ढूंढते रह जाओगें
मोटे सूत की धोत्ती,घी बूरा अर रोटी,
पीळे चावळा का न्यौता, सात पोतियां पै पौत्ता
धोण धड़ी के बाट,मूंज जेवड़ी की खाट
घी के मांट,भुन्दे हुए टाट
घी के मांट,भुन्दे हुए टाट
गुल्ली डण्डे का खेल ,गुड़ की सेळ
ब्याव के बनौरे ,सुहागी के छुहारे
तांगे की सवारी दुध की हारी
पेंचदार पगड़ी ,गोट्टे आळी चुन्दड़ी
तांगे की सवारी दुध की हारी
पेंचदार पगड़ी ,गोट्टे आळी चुन्दड़ी
सर पै भरोट्टी, कमर पै चोटी
ढूंढते रह जाओगें
कासंण मांजण का जूणा, साधूआं का बळता धूणा
गुग्गे का गुलगला ,बालक चुलबुला
बोरले आळी ताई,सूत की कताई
बोरले आळी ताई,सूत की कताई
मुल्तानी अर गेरू,बळद अर रेहडू
कमोई अर करवे, चा पाणी के बरवै
ब्याह में खोड़िया बालकां का पोड़िया
ब्याह में खोड़िया बालकां का पोड़िया
हटड़ी अर आळा, बड़कुलां की माला
दूध पै मळाई,लौगां मै समाई
खेता मैं कोल्हू, नामां मै गोल्हू
खेता मैं कोल्हू, नामां मै गोल्हू
ढूंढते रह जाओगें
गुड़ की सुहाळी,खैतां मै हाळी
हारे की सिलगती आग, ब्याह में पेठे का साग
हारे की सिलगती आग, ब्याह में पेठे का साग
हाथ का बांटा बांण, सरगुन्थी आळी नाण
हाथ मै झोळा, खीर का कचोळा
डयोढ़ी की सोड बन्दड़े का मोड़ (सेहरा)
खेत में बैठ के खाणा ,डोल्या का सिरहाना
लावणी करती लुगाईया ,पाणी भरती पणिहारियां
डेला नीचे खाट,भाठा (पत्थर) के बाट
ढूंढते रह जाओगें
सीर मै भौरी ,अनपढ़ छोरी
चरमक चूं की जूती,दूध प्याण की तूंती
मावस की खीर,पहंडे का नीर
गर्मियों मैं राबड़ी,खेता मैं छाबड़ी
घरां में पाेळी, कोरड़े की होळी
चणे के साग की कढ़ी,चाबी ते चालती घड़ी
काबुआं कांसी का ,काढ़ा खांसी का
काजळ कौचें की ,शुद्धताई चोके की
गुलगला बरसात का ,चुरमा संकरात का
सिठणे लुगाईयों के नखरें हलवाईयों के
भजनी अर ढ़ोलक, माटी के गुल्लक
ढूंढते रह जाओगें
नष्ट होती भारतीय संस्कृति को बचायें भारत बचायें
ये कविता बुढ़ो बड़ों से सुनी हुई है। आज इसे आपके सामने शेयर करने का मौका मिला अगर कोई आंचलिक शब्द, शब्दार्थ समझ में न आये तो मेल द्वारा या फोन द्वारा पुछ सकते है।
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