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Monday, May 9, 2011

कई सालों के बाद देखने को मिला ये साजसामान (भाड़ और भड़बुजा)कासिमपुरा, मालीगांव

 एक राजस्थानी कहावत है कि ‘‘ होयड़े में सं को सीर हैं " यानि   अच्छी पैदावार होने पर सभी के भाग्य के अनुसार उनको उनका हिस्सा मिलता है चाहे वों मजदूर हो या मालीक या पशु या पक्षी इसी कहावत को चरितार्थ करने के लिए ये बांवरिया जाति जो एक घुमक्कड़ जाती हैं का एक मजदूर कारीगर भड़बुजा नारनोल से यहाँ अपनी भाड़ लगाकर चने और जौ को भुननें का कार्य मजदूरी करने आ पहुचा हैं क्योंकि इस बार बारिश के कारण यहां चने और जो की अच्छी पैदावार  हुई है इसलिए कई सालों के बाद आज मुझे ये भाड़ और भड़बुजे का साजो सामान देखने को मिला
लाईन लगाकर धानी भुनवाते ग्रामीण





 बचपन में दादी से या नानी से सुनते थे की गांव में भड़बुजा आया है चलों धानी और भुगड़ा (जौ को भुनने से बनने वाला खाद्य पदार्थ  और भुंगड़ा यानि चने को भुन कर बनने वाला खाद्य पदार्थ ) भुनवा लावां
 आजकल हमारे यहां बारिस कम होने से चने की बुवाई नहीं हो पाती इसलिए ये लोग यहां कम ही आते है कम क्या अब की बार तो लगभग 20 -25 सालों बाद यह देखने को और सुनने को मिला है कि कासिमपुरा और मालीगांव की सीमा में भड़बुजा आया हुआ है।तो आसपास के गांवों  से लोगों का तांता लग गया जौ और चने भुनवाने के लिए  यहां तक कि लाइन लगाकर भुनवाने का कार्य करवा रहें हैं  भड़बुजा जो नारनोल हरियाणा से आया है वों जौ और चने को भुनने का 10 रू प्रतिकिलो के हिसाब से खर्चा ले रहा हैं और नाम मात्र का काटा प्रत्येक व्यक्ति के जौ और चने से अलग काट रहा हैं और उनके बताये अनुसार लगभग रोजाना 2 से 3 क्विटंल जौ और चना वहां पर भुनवाय जाता हैं और यह एक गांव में लगभग 15 दिन ठहरता हैं और फिर दुसरे गांव  चला जाता हैं
 जिस किसी ने  भाड़ में भुनें धानी और भुंगड़े का स्वाद चखा हैं वों ही जानता हैं कि ये कितने स्वादिष्ट होते हैं इनका नाम सुनते ही मुंह में पानी आना तो एक स्वाभाविक बात है। अगर आप भी इन्हें देखेंगें तो इसे बिना खाये नहीं रह सकते

भाड़ के आगें के द्वार से गर्म मिट्टी निकाल कर  चने व जौ भुनता भड्रबुजा
 यह सबसे पहले  एक मिट्टी की गुफा आकृति की एक  कच्ची जगह बनाता हैं जिसे  भाड़ कहते हैं और उसमें सिर्फ दो छेद नुमा दरवाजे रखे जाते हैं एक के अन्दर से इंधन सरसों का फूस व अन्य घासफूस वगेरह डाला जाता हैं



और उस गुफा यानि भाड़ में अग्नि जलाकर उसे गर्म किया जाता हैं जेसा कि फाटों में दिखाया गया हैं और दूसरे दरवाजे में वह बालू मिट्टी जो इस आग से गर्म हो रखी हैं उसे एक बड़े से गोल औजार से निकाल कर पास में रखे लोहे के गोल पात्र जिसमें वह जौ या चने रखता हैं उसमें वो गर्म मिट्टी डालता है जिसके गरमाहट से जौ और चना भुन या फट जाता हैं  और लोहें के चालने से  उसे छान लेता हैं जिससे गर्म मिट्टी नीचे चली ताजी हैं और  जौ या चने जो भुन चुके हैं उपर आ जाते हैं वो ये ग्राहक को दे देता हैं और अपनी मजदूरी ले लेता हैं तथा निचे छानी गई मिट्टी को पुनः उसी भाड़ में गर्म होने के लिए डाल देता  पिछे के दरवाजे से उस गुफा में इंधन फैंका जाता हैंजिससें वो तेजी से जलता हैं और वो मिट्अी पुनः गर्म हो जाती हैं और पुनः वहीं प्रक्रिया दोहराई जाती हैं यह प्रकिक्रया हैं धानी और भुंगड़ भुनवाने की लेकिन यह कार्य बिना अनुभव के हर कोई नहीं कर सकता इसमें भी एक विशेष कला चाहिए जो भड़बुजे के पास ही होती है।

 गुफा (भाड़) का वह हिस्सा दरवाजा जहां से इंधन डाला जाता है।
भुनी हुई जौ की धानी








भुने हुए जौ की धानी बहुत ही ठण्ड करती हैं और अगर इसका सत्तु बनाकर पिया जाये तो बात ही कुछ अलग हैं और चने का स्वाद तो और भी स्वादिष्ट लगता हैं तो हमने तो भुनवा लिए है अब आप भी भुनवा लिजीए या फिर हमारे यहां आकर इसका स्वाद लिजीए।
भुनें हुए  चने (भुंगड़े)
मुझे लगता है शायद यह भाड़ और भड़बुजा वाला कार्य भी अब चंद सालों में विलुप्त प्राय ही हो जायेगा। और आने वाली पिढ़ियों को धानी और भुंगड़े का स्वाद सिर्फ फोटो देखकर ही लेना पड़ेगा यानि आने वाली पिढ़िया इन  शब्दों को पढ़ सकेंगी कि ऐसा भी होता था,इसके बारे में आपका क्या खयाल हैं?












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चर्चा दो ब्लॉगों की

3 comments:

  1. भाई सुरेन्द्र जी हमने भी इन लोगो की कार्य प्रणाली को कभी बचपन में ही देखा था | आजकल तो ये लोग इस मेहनत वाले काम को केवल छोटे गाँवों में ही कर रहे है शहरो में तो इस कार्य हेतु बिजली की भट्टी (ओवन)होती है जिसमे ये कार्य आराम से हो जाता है और खर्चा और मेहनत भी कम लगता है |सुंदर सचित्र जानकारी हेतु आभार |

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  2. भाई वाह सुरेन्द्र जी ! बचपन की यादें ताजा करा दी | हम भी बचपन में भाड़ पर जौ और चने भुनवाने जाया करते थे | धाणी खाने का तो अपना अलग ही मजा है | गर्मियों की छुट्टियों में दोपहर में सभी मित्र एक बरगद या पीपल के पेड़ पर इक्कठा होते थे सभी की जेबों में धाणी भरी होती थी साथ गुड भी | दोपहर में पेड़ की डालों पर बैठ गुड -धाणी खाने का आनंद ही कुछ और था | पर अफ़सोस आजकल के बच्चे इस तरह के स्वास्थ्य वर्धक खाद्य पदार्थों को छोड़ कुरकरे आदि के पीछे भागते है |
    मैं तो अब भी गांव से हर वर्ष धाणी मंगवाता हूँ |

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  3. भाई धाणी-भुगड़े तो हमने भी खाए हैं।
    लेकिन भुंदते आज ही देखे। रेवाड़ी में तो भड़भूजों का मोहल्ला है।
    सारे ही भाड़ झोंकते हैं और धाणी भूगड़े बेचते है।

    राम राम

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